Sunday, August 15, 2010

लाल g

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  1. खुदा ने जब तुम्हे बनाया होगा
    तू उससके दिल पे एक सरूर चाय होगा
    सोचा होगा की तुझको जानत में रखूँ
    फ़िर उस्सको मेरा ख्याल आया होगा
    ~~~~~~~~~~~
    खुशबू की तरह आपके पास बिखर जायेंगे,
    सकूं बन कर दिल में उतर जायेंगे,
    महसूस करने की कोशिश तो कीजिये,
    दूर होते हुए भी पास नज़र आयेंगे
    ~~~~~~~~~~~
    वफ़ा के रंग में डूबी हर शाम तेरे लिए ,
    यह डगर, यह नगर,मेरा नाम बस तेरे लिए,
    तू महेक्ति रहे चांदनी रातों की तरह,
    इस नए साल का पैगाम तेरे लिए

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  2. चित्रों के कूट का दर्शन चित्रकूट

    अवध की सत्ता बनी थी फुटवाल
    चित्रकूट ! एक ऐसी तपस्थली जहां की मिटृी पहाडों , वनों और झरनों की खुशबू देश विदेश के योगियों ,़ऋषियों और श्रद्वालुओं को अपनी ओर आकर्षित करती रही है । विचित्रत्राओं के परिवेश में पल्लवित होती धरा का नाम पुराने जमान में ही चित्रकूट दे दिया गया था । इस धरा पर आने वाला सैलानी यहां देखे जाने वाले नयनाभिराम द्श्यों को देखकर आनंदित हो उठता है । विचित्रताओ और विभिन्नताओं वाले इस क्षेत्र पर कही कल-कल करती मंदाकिनी का सुन्दर जल है तो कही विध्य पर्वत श्रंखलाओं का उन्मुक्त यौवन विखेरती पहाडियां हैं तों कही सुन्दर गुफाओं में मौजूद नायाव नमूने हैं तो कही किलोमीटरों में फैले विशालकाय जंगल हैं । पर्यटक उन्हें देखकर अपनी सद्द बुध विसरा देता है । देश में मौजूद अन्य पर्यटन केंन्द्रो की तरफ जाने वाले लोगों में जहां सिर्फ तफरीह और सुन्दर दृश्यों को देखने की प्रवृत्ति होती है वही यहां आने वाले के मूल में धार्मिकता के दर्शन होते है। प्रकृति की अनमोल धरोहरों से आनंदित होता व्यक्ति जब सुबह उठते ही साथ बम-बम भोले और जयश्रीराम के उदघोष घंटा घटियालों के साथ सुनता है तो वह रोमाचित होकर धर्म की इस नगरी में आकर अपने आपको पुष्य का सबसे बड़ा भागी मानता है।

    चित्रकूट की यात्रा प्रारंभ होती है मंदाकिनी और पयस्वनी के संगम स्थल रामघाट से यहां श्रीराम ने अपने पिता दशरथ का पिण्ड तर्पण यिका था। स्नान करने के बाद चित्रकूट के महाराजा धिराज 1008 मतगजेन्द्र नाथ जी स्वामी के रूद्रभिषेक पर जल चढाकर यात्रा की शुरूआत की जाती है। मंदिर में चार रूद्रवतार भगवान शंकर की मूर्तियां प्रतिष्थपित हैं। आदिकाल की मूर्ति स्वंय सृष्टि रचयिता बृहमा जी द्वारा स्थापित की गई थी उन्होंने भगवान शंकर शापित होने पर


    श्री वाल्मीकि आश्रम
    यह स्थान चित्रकूट से कर्वी इलाहाबाद मार्ग पर 32 कि0मी0 पूर्व स्थित है। यहाँ श्री वाल्मीकि जी का आश्रम है। कहा जाता है कि श्री वाल्मीकि जी ने रामायण की रचना यहीं पर की थी, जो कि संस्कृत भाषा का आदि काव्य माना जाता है।

    वनवास के समय भगवान श्रीराम यहाँ आकर श्री वाल्मीकि जी से अपने निवास के लिए स्थान पूॅछा, तो श्री महर्षि जी ने चित्रकूट में रहने के लिए निर्देश किया था- जैसे श्री तुलसीदास जी मानस में कहा है-

    चित्रकूट गिरी करहु निवासू।
    जहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू।।

    यहाँ पर एक छोटी सी पहाड़ी है, जिसमें देवी जी की मूर्ति है। यहाँ भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए संस्कृत विद्यालय भी है।

    गणेश बाग
    चित्रकूट धाम कर्वी से लगभग 3 कि. मी. दूर दक्षिण की ओर गणेशबाग स्थित है। यह स्थान श्री वाजीराव पेशवा के शासन काल निर्मित हुआ था, और उन्हीं के पारिवारिक लोगों के मनोरंजन का साधन रहा। इसके स्थापत्य कला को अवलोकन करके यह मालुम पड़ता है कि पेशवा के काल में स्थापत्य कला अपनी चरम सीमा तक पहुँच चुकी थी।

    इसमें खजुराहो शैली पर आधरित काम कला का विस्तृत चित्राकंन है। यह तत्कालीन पेशवा नरेशों की मानसिकता की देन है, संभवतः पेशवा नरेशों ने अपने आमोद-प्रमोद के लिए निर्माण कराया हो। पंच मंजिलें के समूह को पंचायतन कहते है। इस पंच मंजिले मन्दिर के शिखर पर काम कला के बहुत से भितिं चित्र खोदे गये है। कुछ स्वतन्त्र मैथुन मुद्रा में हैं, तथा कुछ पुराणों एवं रामायण पर आधारित हैं। यहाँ काम, योग तथा भक्ति का अद्भुत सामन्नजस्य देखने को मिलता है।

    मन्दिर के ठीक सामने एक सरोबर है, जिसके ऊपर मन्दिर की ओर स्नान के लिए एक हौज है, जिसमें दो छिद्रों से पानी आता है, मन्दिर में फानूस में लगे हुए लोहे के हुक आज भी कला-कृति एवं साज-सजावट की दस्तान बताते हैं। मन्दिर से कुछ हटकर पंचखंड की वावली है, जिसके चार खण्ड भूमि-गत हैं। ग्रीष्म ऋतु में जलस्तर कम होने पर तीन खंडों के लिए रास्ता जाता है।

    ”कर्वी“ पेशवाकालीन राजमहल (वर्तमान कोतवाली) से गणेश बाग तक गुप्त रास्ता है, जो पेशवाओं के पारिवारिक सदस्यों के आने-जाने के लिए प्रयुक्त किया जाता था। यदि इसे छोटा खजुराहो कहा जाय तो अतियोक्ति न होगी।

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  3. कोटि तीर्थ
    यह स्थान रामघाट से पूर्व 6 मील दूर सड़क पर्वत पर स्थित है। यहाँ पर एक कोटि मुनीश्वर श्रीराम जी के दर्शनार्थ तप करते थे, उनके ऊपर प्रसन्न होकर श्रीराम जी ने सबको एक साथ दर्शन दिये। यहाँ पर एक शिवजी का मन्दिर है। इस स्थल को सिद्धश्रम कहते हैं। अग्नि, वरूण, सूर्य, चन्द्र, वायु आदि अनेक तीर्थी के होने से इसे कोटि तीर्थ कहते हैं।

    देवांगना
    कोटि तीर्थ से लगभग 1 कि0मी0 दक्षिण की ओर पर्वतीय मार्ग पर यह स्थान है। यहाँ देवकन्या ने अपार तप किया था। भगवान राम जी उसे दर्शेन दिये थे, इसके सम्बन्ध में कई तरह ी जनश्रुतियाँ प्रचलित हैं। यह देवकन्या जयन्त की पत्नी श्री, जयन्त का चरित्र स्फटिक शिला के परिचय में दिया गया है। देवकन्या की स्मृति में निर्मित यह स्थान आज भी अपना आलोक विखेर रहा है। यहाँ लाखो नर-नारी दर्शन के लिए आते हैं और अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं।

    सीता रसोई
    यह स्थान विन्ध्य पर्वत पर हनुमान धारा के ऊपर स्थित है। इसका पुराना नाम जमदग्नि तीर्थ है। भगवान राम एवं लखनलाल जी के लिए माँ जानकी जी ने इस स्थान पर फलाहार तैयार किया था, ऐसी किंवदन्ती है, अतः इस स्थान को सीता रसोई के नाम से जाना जाता है।

    हनुमान धारा
    यह स्थान मन्दकिनी गंगा से पूर्व 3 मील दूरी पर विन्याचल की श्रेणी में स्थित है। कहा जाता है कि लंका को जलाते समय अग्नि की लपटों से सन्तप्त श्री मारूति नन्दन समुद्र में कूद पड़े थे, फिर भी की लपटों से सन्तपत श्री मारूति नन्दन समुद्र में कूद पड़े थे फिर भी उनका दाह दूर नहीं हुआ। अस्तु रामराज्य होने के बाद भगवान राघवेन्द्र की सेवा में रहकर श्री हनुमंत लाल जी ने अपनी जलन की वेदना को शान्त करने के लिए भगवान श्रीराम से प्रार्थना की और भगवान राम ने उन्हें चित्रकूट में स्थित विन्ध्य गिरी पर निवास करने के लिए कहा, जहाँ पर पर्वत से निकली हुई जलधारा अनावरत आज भी श्री हनुमंत लाल जी के पावन देह की प्लावित करती है। अतः यह स्थान हनुमान धारा के नाम से प्रसिद्ध है।

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  4. राघव प्रयाग
    यह स्थान मन्दाकिनी गंगा के पश्चिम तट पर स्थित है। यहाँ पर मन्दकिनी पयश्रवणी एवं सरयू गंगा का संगम है। इन तीनों नदियों के उद्गम स्थान पृथक-पृथक है। मन्दकिनी अति मुनि के आश्रम से निकली है। पौराणिक गाथा के अनुसार श्री अति मुनि की पत्नी अनुसुइया जी ने अपने तपोवल से प्रकट किया है। पयश्रवणी गंगा का उद्गम ब्रह्यकुण्ड है, जो श्री कामद्गिरी के दक्षिण तट पर स्थित है।

    कामद्गिरी के उत्तरी तट से श्री सरयू जी का उद्गम है। यही तीनों नदियाँ मिल करके प्रयाग के रूप में परिवर्तित हो जाती है। रघुकुलभूषण श्री रामजी ने अपने पूज्य पिता के लिए यहीं पर पिण्ड दान दिया था, इसलिए उक्त स्थान को राघव प्रयाग कहा जाता है।

    रामघाट
    मन्दकिनी के पश्चिम तट पर बने हुए घाटों के मध्य में स्थित घाट को रामघाट कहते हैं। इसका यह नाम पूज्यपाद गोस्वामी जी द्वारा भगवान राम के मस्तक में चन्दन लगाने की घटना से सम्बद्ध है। पूज्य पाद गोस्वामी जी को श्रीराम के दर्शन श्री हनुमान जी की प्रेरणा से इसी घाट में हुये थे। जिसका उल्लेख हनुमान जी के द्वारा कहे हुए दोहे से स्पष्ट होता है।

    चित्रकूट के घाट पर, भइ संतन की भीर।
    तुलसीदास चन्दन घिसै, तिलक देत रघुवीर।।

    तोतामुखी श्री हनुमान जी द्वारा इस दोहे का निर्देश किये जाने से यहाँ पर एक तोतामुखी हनुमान जी की प्रतिमा आज भी पायी जाती है।
    दूसरी प्रसिद्धि श्री रामचरित मानस के अनुसार श्री राम का यह निर्देश कि-

    रघुवर कहो लखन भल घाट।
    करहु कतहु अब ठाहर ठाटु।।

    ये भी रामघाट की ओर संकेत कर रहा है।

    इस घाट के पश्चिम की ओर यज्ञवेदी एवं पर्ण कुटी नामक स्थान आज भी स्थित है। जो कि भगवान राम के निवास की स्मृति को आज भी ताजी बना रहे हैं।

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